Tuesday, March 12, 2013

मीडिया: कोयले की दलाली से कोयले के व्यापार तक

बड़ी-बड़ी बहस चलाने वाला मीडिया चुप्पी साधे खड़ा है
भारत में कोयला घोटाले ने एक बार फिर तथाकथित लोकतांत्रिक संस्थाओं के चेहरे से नकाब हटाने के काम किया है। एक लाख छियासी हजार करोड़ की कोयले की दलाली में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ पक्ष-विपक्ष के कई नेता तो कटघरे में हैं ही, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दम भरने वाला समाचार मीडिया भी इससे अछूता नहीं है। इस घोटाले में दैनिक भास्कर चलाने वाली कंपनी डीबी कॉर्प लिमिटेड, प्रभात खबर की मालिक कंपनी ऊषा मार्टिन लिमिटेड, लोकमत समाचार समूह और इंडिया टुडे समूह में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले आदित्य बिड़ला समूह का नाम सामने आया है। छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी बहस चलाने वाला सरकारी और कॉरपोरेट मीडिया इन कंपनियों की करतूत पर या तो चुप्पी साधे खड़ा है या खबर को घुमा-फिराकर पेश कर रहा है।
इसी मार्च में सरकारी ऑडिटर, भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में कोयला खदान आवंटन में हुई गड़बड़ी सामने आई तो इसमें कई मीडिया कंपनियों के शामिल होने की चर्चाएं भी थीं। आखिरकार इंटर मिनिस्टीरियल ग्रुप (अंतर मंत्रिमंडलीय समूह) की बैठक में यह साफ हो गया कि कौन-कौन सी मीडिया कंपनियां इस घोटाले में शामिल हैं। इस घटना से एक बार फिर यह भी छिपा नहीं रहा है कि किस तरह कॉरपोरेट मीडिया जनता के साथ धोखेबाजी करता है। पहले भी टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले और कॉमनवेल्थ घोटाले में मीडिया की आपराधिक भूमिका सामने आ चुकी है। यह इस बात का भी उदाहरण है कि किस तरह भारतीय लोकतंत्र का प्रहरी (वॉच डॉग) खुद लूट में शामिल होकर लोकतंत्र का मजाक बना रहा है। सीएजी की रिपोर्ट से पता चलता है कि दो हजार चार से दो हजार नौ के दौरान हुए कोयला खदानों के आवंटन में भारी घोटाला किया गया। रिपोर्ट कहती है कि सरकार ने को औने-पौने दामों में कोयला खदानों को निजी कंपनियों के हवाले कर दिया। इस भ्रष्टाचार से सरकारी खजाने को एक लाख छियासी हजार करोड़ की रकम का नुकसान हुआ। यह घोटाला इस बात का भी पुख्ता सबूत है कि देश के बहुराष्ट्रीय व्यापारी घराने सरकारी नीतियों को मन मुताबिक तोडऩे-मोडऩे में किस तरह जुटे हुए हैं।

यह बात जग जाहिर है कि विज्ञापन और अन्य प्रलोभनों के चलते समाचार मीडिया लगातार पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बना रहता है। पूंजीपति भी अपने पक्ष में जनमत बनाने और सत्ता पर प्रभाव जमाने में मीडिया की भूमिका से अनजान नहीं हैं, इसलिए कई पूंजीपति सीधे मीडिया को अपने नियंत्रण में ले लेते हैं। कोयला घोटाले में फंसी कंपनियों ने भी इसी रणनीति के तहत मीडिया को अपने कब्जे में लिया है, उनके गैरकानूनी काम इस बात की खुलेआम गवाही देते हैं। यह कॉरपोरेट मीडिया का ही कमाल है कि कोयला घोटाले की पोल खुलने के बाद भी बहस सिर्फ कोयला खदानों के आवंटन में हुई गड़बड़ी पर केंद्रित है। यह सवाल नहीं उठाया जा रहा है कि आखिर कोयला खदानों को निजी हाथों में सौंपने की जरूरत ही क्या है? इस तरह के नीतिगत सवाल कॉरपोरेट मीडिया के खिलाफ जाते हैं इसलिए वह मरे मन से सिर्फ आवंटन का सवाल उठा रहा है (ऐसा करना उसकी विश्वसनीयता को बरकरार रखने के लिए जरूरी है)।

कोयला घोटाले में शामिल चार मीडिया कंपनियों का जायया लिया जाए तो यह बात साबित हो जाएगी कि किस तरह कॉरपोरेट, मीडिया और सरकार को चला रहे हैं। इससे कॉरपोरेट साजिशों को समझना भी और आसान होगा। पहले बात करते हैं लोकमत समूह की। यह अखबार अपने प्रसार के हिसाब से मराठी का सबसे बड़ा अखबार है। महाराष्ट्र के कई जिलों से इसका प्रकाशन होता है। मराठी के अलावा हिंदी में भी लोकमत समाचार प्रकाशित होता है। इस कंपनी का रिश्ता मुकेश अंबानी-राघव बहल-राजदीप सरदेसाई से भी है, मराठी न्यूज चैनल आइबीएन-लोकमत इसका उदाहरण है। लोकमत के मालिक विजय दर्डा कांग्रेस पार्टी के सांसद भी हैं और कंपनी के दूसरे मालिक और विजय के भाई राजेंद्र दर्डा महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार में शिक्षा मंत्री हैं। विजय दर्डा पत्रिकारिता के उसूलों की धज्जियां उड़ाते हुए पत्रकार, व्यापारी और राजनीतिज्ञ एक साथ हैं। उन्हें 1990-91 में फिरोज गांधी मेमोरियल अवॉर्ड फॉर एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म मिल चुका है। इसके अलावा 1997 में जायंट इंटरनेशनल जर्नलिज्म अवॉर्ड और दो हजार छह में ब्रिजलालजी बियानी जर्नलिज्म अवॉर्ड भी मिला हुआ है।

विजय दर्डा मीडिया मालिकों के प्रभाव वाली संस्था ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के अध्यक्ष रहने के अलावा इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। ये दोनों संस्थाएं मीडिया मालिकों के प्रभाव और उनका हित देखने वाली संस्थाएं हैं। दर्डा साउथ एशियन एडिटर्स फोरम के अध्यक्ष रहकर भी उसे धन्य कर चुके हैं। भारत में प्रेस की नैतिकता को बनाये रखने वाली संस्था प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआइ) के सदस्य रहकर भी उन्होंने पत्रकारीय नैतिकता की रक्षा की है! वल्र्ड न्यूज पेपर एसोसिएशन के सदस्य होने के साथ और भी कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों के सदस्य हैं। कुल मिलाकर पत्रकारिता के नाम पर मालिक होकर भी जितने फायदे हो सकते हैं उन्होंने दोनों हाथों से बटोरे हैं। फिर, कोयले पर तो उनका हक बनता ही था! जब पेड न्यूज का मामला जोर-शोर से उठ रहा था तब लोकमत का नाम उसमें सबसे ऊपर था। अब कोयला घोटाले में भी विजय दर्डा और राजेंद्र दर्डा आरोपी कंपनी जेडीएस यवतमाल कंपनी के मालिक/डायरेक्टर होने के साथ ही दूसरी आरोपी कंपनी जैस इंफ्रास्ट्रक्चर के भी सात फीसदी के मालिक हैं।

दूसरी मीडिया कंपनी है दैनिक भास्कर अखबार को प्रकाशित करने वाली कंपनी डीबी कॉर्प लिमिटेड। दैनिक भास्कर के उत्तर भारत के सात राज्यों से कई संस्करण प्रकाशित होते हैं। यह हिंदी का दूसरा सबसे बड़ा अखबार है। डीबी स्टार, बिजनेस भास्कर, गुजराती में दिव्य भास्कर और अहा जिंदगी पत्रिका भी इसी के प्रकाशन हैं। चार राज्यों से निकलने वाले अंग्रेजी अखबार डीएनए में भी इसकी हिस्सेदारी है। भोपाल के गिरीश, रमेश, सुधीर और पवन अग्रवाल कंपनी के मालिक हैं। पिछले कुछ वर्षों में दैनिक भास्कर मीडिया बाजार में अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को किनारे लगाते हुए बड़ी तेजी से उभरा है। मार्केटिंग का हर हथकंडा अपनाते हुए इसने उत्तर भारत में अपने लिए एक खास जगह बनाई है लेकिन इसके कर्मचारियों और पत्रकारों पर छंटनी की तलवार हमेशा लटकी रहती है। प्रबंधन की नीतियों के मुताबिक उनकी नौकरी कभी भी छीनी जा सकती है। डीबी कॉर्प के चार भाषाओं में प्रकाशित होने वाले अखबारों के उनहत्तर संस्करण और एक सौ पैंतीस उप-संस्करण जनता के बीच पहुंचते हैं। कंपनी माई एफएम नाम से देश के सत्रह शहरों से रेडियो भी संचालित करती है।

डीबी कॉर्प का धंधा सिर्फ मीडिया ही नहीं है। इसकी मौजूदगी और भी कई धंधों में है। भारतीय बाजार के रेग्युलेटर सेक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) ने इस कंपनी की वित्तीय स्थिति के बारे में कहा है कि इसके पास उनहत्तर अन्य कंपनियों का मालिकाना भी है। जिनमें खनन, ऊर्जा उत्पादन, रियल एस्टेट और टैक्सटाइल जैसे कई धंधे शामिल हैं। कहा जाता है कि कंपनी ने भोपाल में जो मॉल बनाया है वैसा भव्य मॉल एशिया में और कहीं नहीं है। मुनाफा कमाने के लिए जहां भी इस कंपनी को रास्ता दिखता है ये वहीं चल पड़ती है और रास्ते में कोई दिक्कत आ गई तो मीडिया का इतना बड़ा साम्राज्य किस दिन के लिए है! डीबी कॉर्प के कामों को आगे बढ़ाने में दैनिक भास्कर लगातार उसके साथ रहता है। जहां-जहां कंपनी को धंधा करना होता है वहां से वो अखबार निकालना नहीं भूलती ताकि जनमत और सत्ता को साधने में आसानी रहे। कोयला घोटाले में नाम आने से पहले ही छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में जनता के विरोध के बावजूद भाजपा सरकार ने इसे 693.2 हेक्टेयर जमीन स्वीकृत कर दी, वहां जनता का आक्रोश फूट पड़ा और आखरिकार छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने पाया कि कंपनी ने पर्यावरण के मानकों का बुरी तरह उल्लंघन किया है। कोर्ट ने आदेश दिया कि आगे से इस कंपनी को पर्यावरण मानकों को लेकर हरी झंडी न दी जाए। हाईकोर्ट में कंपनी के खिलाफ याचिका डालने वाले डीएस मालिया का कहना है कि दैनिक भास्कर ने उनके तथ्यों को झुठलाने के लिए अपने अखबार के कई पृष्ठ रंग डाले और सही खबर को दबाने के लिए हर संभव कोशिश की। दैनिक भास्कर ने राहुल सांस्कृत्यायन के ‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’ की तर्ज पर ‘अपने लिए जिद करो, दुनिया बदलो’ की टैग लाइन चुनी है। जिस तरह से भास्कर देश के संसाधनों की लूट में शामिल है उससे जाहिर है कि वह कैसी बेशर्म जिद का शिकार है! लोकमत समाचार की तरह ही यह कंपनी भी पेड न्यूज छापकर अपना नाम कमा चुकी है! पेड न्यूज पर भारतीय प्रेस परिषद की परंजॉय गुहा ठकुरता और के श्रीनिवास रेड्डी वाली रिपोर्ट में इन दोनों कंपनियों का नाम दर्ज है।

कोयले की दलाली में शामिल तीसरा अखबार प्रभात खबर है। बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से इसके कई संस्करण निकलते हैं। इसका प्रकाशन उन्नीस सौ चौरासी में खनन उद्योग से जुड़ी कंपनी उषा मार्टिन लिमिटेड ने शुरू किया। उषा मार्टिन समूह के और भी कई धंधे हैं। अपने राजनीतिक संपर्कों के लिए पहचाने जाने वाले हरिवंश उन्नीस सौ नवासी से इसके संपादक हैं। चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में वह प्रधानमंत्री ऑफिस में पब्लिक रिलेशन का काम भी कर चुके हैं। ऊषा मार्टिन कंपनी का मुख्य धंधा बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में ही चलता है। कंपनी पर आरोप लगता रहा है कि इस इलाके में अपने धंधे के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ही उसने अखबार का भी सहारा लिया है। कोयला घोटाले में नाम आने से इस सच्चाई पर पक्की मोहर लग जाती है।

चौथी दागी कॉरपोरेट आदित्य बिड़ला समूह है। यह एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी है जिसका धंधा देश-विदेश में कई क्षेत्रों में फैला हुआ है। यह समूह खाद, रसायन सीमेंट रीटेल, टेलीकॉम जैसे अनगिनत धंधों से जुड़ा हुआ है। हिंडाल्को, आइडिया सेल्यूलर और अल्ट्राटेक सीमेंट इसकी कुछ कंपनियों के नाम हैं। इस समूह ने अरुण पुरी के लिविंग मीडिया इंडिया ग्रुप में 27.5 फीसदी की हिस्सेदारी है। अरुण पुरी इंडिया टुडे के विभिन्न प्रकाशनों और टीवी टुडे समूह के चैनलों के मालिक हैं, जिनमें आजतक और हेडलाइंस टुडे जैसे चैनल भी शामिल हैं। आदित्य बिड़ला समूह ने मीडिया में क्यों पैसा लगाया है इसके लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है!

जिन भी कंपनियों का नाम कोयला घोटाले में आया है क्या उनसे उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने मालिकाने वाले मीडिया में कोयला घोटाले को सही तरह से रिपोर्ट कर पाएंगे? इस सरल से सवाल के जवाब को आज का मीडिया परिदृश्य काफी कठिन बना देता है जिससे हकीकत पर हमेशा के लिए पर्दा पड़ा रहे। बाजार अर्थव्यवस्था जन-पक्षधर नियमों को ढीला किए बिना चल ही नहीं सकती। सरकारें भी कॉरपोरेट दबाव में मीडिया नियमन के सवाल को लगातार अनदेखा करती रहती हैं। इस मौके का फायदा उठाते हुए बड़े-बड़े बिजनेस समूह मीडिया को खरीदकर उसकी आड़ में अपने बाकी धंधों को चमका रहे हैं। उन्हें ऐसा कदम उठाने से रोकने वाला कोई कानून नहीं है, यही वजह है कि चावल से लेकर सीमेंट का धंधा करने वाली और बिल्डरों से लेकर कोयला बेचने वाली कंपनियां तक मीडिया में पैसा लगा रही हैं। नई आर्थिक नीतियों को अपनाने और तथाकथित सूचना क्रांति के अस्तित्व में आने के बाद सरकारें निजी कंपनियों के सामने ज्यादा आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं। कॉरपोरेट अपराधों के खिलाफ कोई नियम बनाने से उन्हें लगता है कि इससे देश की विकास दर मंदी पड़ जाएगी, विदेशी निवेश घट जाएगा।

वैसे आजादी के बाद से ही व्यापारिक घरानों द्वारा मीडिया को इस्तेमाल करने की शुरुआत हो चुकी थी, इसलिए उस दौरान भारतीय प्रेस को जूट प्रेस भी कहा जाता था। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों के मालिक तब जूट मिलें चलाया करते थे। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन जूट प्रेस की आलोचना करते रहे लेकिन उन्होंने कभी मीडिया में दूसरे धंधों के मालिकों के आने के खिलाफ कोई नियम नहीं बना पाए। बाद में भारतीय प्रेस को स्टील प्रेस भी कहा जाने लगा क्योंकि टाटा जैसी कंपनी का तब के प्रभावशाली अखबार द स्टेट्समैन में पैसा लगा था। इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका ने भी पिछली सदी के साठ के दशक में इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की कोशिश की थी। ये कंपनियां हमेशा से अपने व्यापारिक हितों की रक्षा व उन्हें बढ़ाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करती रही हैं। कुछ समय पहले जिस तरह मुकेश अंबानी की कंपनी रियायंस इंडस्ट्रीज ने नेटवर्क 18 और तेलुगू अखबार समूह इनाडु का अधिग्रहण किया है उसे भी इसी क्रम में देखा जा सकता है। इसी तरह कहा जाता है कि कई मीडिया कंपनियों में मुकेश के भाई अनिल अंबानी और रतन टाटा का भी पैसा लगा हुआ है।

भारत में मीडिया के मालिकाने पर बात करते हुए इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि बड़ी पूंजी का मीडिया पर कब्जा बढ़ता जा रहा हैं। अखबार, टेलीविजन, रेडियो और इंटरनेट से लेकर सभी प्रकार के मीडिया को वे अपने नियंत्रण में ले रहे हैं। मीडिया संकेंद्रण और एकाधिकार की यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे छोटी पूंजी के बल पर निकलने वाले स्वतंत्र समाचार मीडिया को खत्म कर रही है। मीडिया के मालिकाने का केंद्रीकरण लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इसका उपाय यही है कि क्रास मीडिया होल्डिंग यानी एक ही मीडिया कंपनी के सभी तरह के मीडिया में पैसा लगाने पर रोक लगाई जाए। बहुसंस्करणों पर रोक हो। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पूंजीवादों देशों में भी मीडिया में पूंजी निवेश को लेकर कोई न कोई नियम हैं लेकिन भारत सरकार इस मामले में अब तक सोयी हुई है। फिलहाल देश के प्रिंट मीडिया पर 9 बड़े मीडिया घरानों का प्रभुत्व हो चुका है। टाइम्स (ऑफ इंडिया) समूह, हिंदुस्तान टाइम्स समूह, इंडियन एक्सप्रेस समूह, द हिंदू समूह, आनंद बाजार पत्रिका समूह, मलयाला मनोरमा समूह, सहारा समूह, भास्कर समूह और जागरण समूह ने लगभग पूरे मीडिया बाजार पर कब्जा कर रखा है। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्टार इंडिया, टीवी 18, एनडीटीवी, सोनी, जी समूह, इंडिया टुडे समूह और सन नेटवर्क का बोलबाला है। यही हाल रहा तो जल्दी ही देश में पूरी तरह से मीडिया एकाधिकार (मोनोपली) के हालात पैदा हो सकते हैं। दो हजार नौ में टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राइ) ने क्रॉस मीडिया ऑनरशिप संकेंद्रण को लेकर अपनी चिंता जताई थी। अपने आधार पत्र में उसने सख्त नियम बनाने की वकालत भी की थी लेकिन कमजोर राजनीतिक इच्छा शक्ति की वजह से इसको लेकर कोई ठोस कानून नहीं बन पाया है।

जिस तरह कई मीडिया समूहों के नाम कोयला घोटाले में आये हैं उससे सबक लेते हुए ऐसे नियम बनाने की जरूरत है जिससे देश में मीडिया स्वामित्व को अन्य उद्योगों से मालिकाने से स्वतंत्र रखा जा सके।

(समयांतर)


मीडिया की काली करतूत//अमलेन्दु उपाध्याय

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