Tuesday, February 11, 2014

भाषा के सवाल पर गंभीर विमर्श प्रस्तुत करती किताब-"भाषा का सच"

अपने हिंदी भाषी होने पर अफसोस आखिर क्यूँ ?
गर लोकतंत्र में काबलियत की बजाये आंकड़ा तंत्र छाता जा रहा है, सियासत में सत्ता लोलुपता बढ़ रही है तो हालत मीडिया की भी अच्छी नहीं रही। अगर कोई वेश्या किसी मजबूरी के कारण अपना  जिस्म बेचती है तो हमारे आज के बहुत से कलमकार अपनी दिमागी और जिस्मानी मेहनत के साथ साथ अपनी सोच भी बेच रहे हैं--अपने ख्यालात भी बेच रहे हैं और जनता के सामने लगातार वही सच सामने ला रहे हैं जिसे उनके मालिक लोग देखना चाहते हैं। पेड न्यूज़ का सबसे अधिक दुष्प्रभाव पड़ने वाला है आम आदमी पर। सच को दबाने  बदलने की जितनी साज़िशें आज हो रही हैं पहले शायद कभी नहीं थीं। कुछ महीने पूर्व जब अनिल चमड़िया लुधियाना के एक गांव की सभा में आये थे तो उन्होंने बहुत सी सच्चाईयों से आम जनता को वाकिफ करवाया था। तब से एक उम्मीद बंधी थी कि सच की मशाल को थामने वाले अभी भी हैं। एक बार फिर यह विश्वास हुआ कि सच की आवाज़ फिर बुलंद होगी। चमक दमक के इस दौर में हकीकत अपने असली रूप में सबके सामने आकर रहेगी। "भाषा का सच" के बारे में जान कर यह उम्मीद और मज़बूत हुई। 
फेसबुक पर जारी हुईं अवनीश राय की पोस्टों के  मुताबिक "भाषा का सच" भाषा के सवाल पर गंभीर विमर्श प्रस्तुत करती किताब है। यह उन नीतियों को भी विस्तार से रखती है जिनसे मातृभाषाओं को धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। मातृभाषा के खिलाफ और अंग्रेजी के पक्ष में फैलाई गई बहुत सी धारणाओं को भी यह किताब तमाम शोधों के माध्यम से दूर करती है। जाहिर है इंसाफ का सवाल भी इससे अलग नहीं है। यह किताब Media Studies Groupedia Studies Group ने प्रकाशित की है। इसके बारे में ज्यादा जानकारी भाषा का सच पर जाकर देखा जा सकता है।
हम अपने हिंदी भाषी होने पर अफसोस करते रहते है और अंग्रेजी सीखने के लिए दिन-रात लगे रहते है। यह भी जानने की कोशिश नहीं करते है कि जब तक हम अपनी ही भाषा को ठीक से नहीं समझेंगे, तब तक अन्य भाषाओं को कैसे समझ पाएंगे। अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाओं को सीखने में भी आसानी होती है, यह बात विदेशों में भी मानी गई। और यूनेस्को के सर्वेक्षणों में यह बात साबित हुई है।
इससे कोई इँकार नहीं कर सकता कि सही समझ और बेहतर संचार के लिए मातृभाषा का बहुत महत्व है। इस किताब में इसी विषय को लेकर शोधपरक लेख सम्मिलित किए गए हैं। साथ ही इस विषय पर भी गंभीर चर्चा है कि किस तरह कुछ एक भाषाएं बाकी भाषाओं पर कब्जा कर रही हैं। यह किताब आपको विश्व पुस्तक मेले में Media Studies Group के स्टैंड पर मिलेगी।
हम अपने हिंदी भाषी होने पर अफसोस करते रहते है और अंग्रेजी सीखने के लिए दिन-रात लगे रहते है। यह भी जानने की कोशिश नहीं करते है कि जब तक हम अपनी ही भाषा को ठीक से नहीं समझेंगे, तब तक अन्य भाषाओं को कैसे समझ पाएंगे। अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाओं को सीखने में भी आसानी होती है, यह बात विदेशों में भी मानी गई। और यूनेस्को के सर्वेक्षणों में यह बात साबित हुई है।

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